21. फिर सुलैमान ने भवन को भीतर भीतर चोखे सोने से मढ़वाया, और दर्शन-स्थान के साम्हने सोने की सांकलें लगाई; और उसको भी सोने से मढ़वाया।
22. और उसने पूरे भवन को सोने से मढ़वाकर उसका पूरा काम निपटा दिया। और दर्शन-स्थान की पूरी वेदी को भी उसने सोने से मढ़वाया।
23. दर्शन-स्थान में उसने दस दस हाथ ऊंचे जलपाई की लकड़ी के दो करूब बना रखे।
24. एक करूब का एक पंख पांच हाथ का था, और उसका दूसरा पंख भी पांच हाथ का था, एक पंख के सिरे से, दूसरे पंख के सिरे तक दस हाथ थे।
25. और दूसरा करूब भी दस हाथ का था; दोनों करूब एक ही नाप और एक ही आकार के थे।
26. एक करूब की ऊंचाई दस हाथ की, और दूसरे की भी इतनी ही थी।
27. और उसने करूबों को भीतर वाले स्थान में धरवा दिया; और करूबोंके पंख ऐसे फैले थे, कि एक करूब का एक पंख, एक भीत से, और दूसरे का दूसरा पंख, दूसरी भीत से लगा हुआ था, फिर उनके दूसरे दो पंख भवन के मध्य में एक दूसरे से लगे हुए थे।
28. और करूबों को उसने सोने से मढ़वाया।
29. और उसने भवन की भीतों में बाहर और भीतर चारों ओर करूब, खजूर और खिले हुए फूल खुदवाए।
30. और भवन के भीतर और बाहर वाले फर्श उसने सोने से मढ़वाए।
31. और दर्शन-स्थान के द्वार पर उसने जलपाई की लकड़ी के किवाड़ लगाए और चौखट के सिरहाने और बाजुओं की लंबाई भवन की चौड़ाई का पांचवां भाग थी।